अंधी आधुनिकीकरण और गिरती हिंदी सिनेमा के कारण है "आदिपुरुष" - आलोक सोनी

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अंधी आधुनिकीकरण और गिरती हिंदी सिनेमा के कारण है "आदिपुरुष" - आलोक सोनी

एक तरफ जहाँ रामानंद सागर की रामायण अमर गाथा के रूप में पूरे विश्व भर में सामने आई, वहीं आज हिंदी सिनेमा की गिरती स्तर आदिपुरुष लेकर आई। एक तरफ जहाँ रामायण धारावाहिक का संवाद और उनके अभिनय पात्र धार्मिक आस्थाओं को बराबर जोड़े रखने का प्रयास करती है, वहीं आदिपुरुष इसके ठीक विपरीत खड़ी नज़र आती है। इसी बीच चौपारण प्रखंड के बसरिया पंचायत के युवा लेखक, गीतकार सह विचारक आलोक सोनी हिंदी सिनेमा इंडस्ट्री के नकाब को हटाते हुए कहते हैं कि आदिपुरुष फ़िल्म जो है, पूर्णरूप से व्यावसायिक है । निर्माता या अन्य प्रोडक्शन हाउस के लोगों की एक हीं चिंता है कि पांच सौ करोड़ को हज़ार करोड़ में कैसे बदला जाए, इसे सुपरहिट कैसे बनाया जाए ? अब इस बड़ी चुनौती का सामना करना और फ़िल्म को ब्लॉकबस्टर बनाना, उनलोगों के सामने एक गम्भीर समस्या बन जाती है। अब उनलोगों के सामने इस समस्या के समाधान का एक हीं सूत्र नज़र आता है - की पहले लोगों की बौद्धिकता और उनके आस-पास के वातावरण को पढ़ा जाए, और फिर उनको वही दिया जाए जो उन्हें रोमांचित करती हो, मौज देती हो ; चाहे वो अश्लीलता से भरी पटकथा हो या गाली-गलौज जैसे अमर्यादित शब्दों से भरी संवाद हीं क्यों न। चूंकि आज की मॉडर्नाइजेशन की अंधी रफ़्तार को ध्यान में रखें तो पता चलता है कि आधुनिकीकरण का स्तर इतना गिर चुका है कि लोगों की चाह और राह - कामुक्ता, अश्लीलता और गाली-गलौज जैसे न जाने कितने हीं अहित चीजों में सिमट कर रह गई है। लोगों को सभ्यता, संस्कार और धार्मिक मूल्यों से कोई मतलब हीं नहीं। वो ऐसे जगहों और लोगों से दूर रहना पसंद करते हैं जहाँ से पुरुषार्थ का प्रकाश निकलना शुरू होता है। आज लोगों को केवल अपने इन्द्रिय भोग-विलास के लिए अमोद-प्रमोद की चिंता है। उन्हें वैसा सुख चाहिए जो उनके इंद्रियों को तृप्त कर सके। चाहे वो किसी की मर्यादित छवि को ताख पर चढ़ा दे या उनका उपहास बनाए। उन्हें सद्गुणों से कोई मतलब नहीं। जब लोगों को सद्गुणों से हीं कोई मतलब नहीं, उन्हें इनका ज्ञान हीं नहीं, तो यदि हम उनके बीच गलत विषय-वस्तु भी परोसें तो उनको उनकी तृप्ति और हमें हमारे स्वार्थपरता का लाभ हो जाएगा। अंततः हिंदी सिनेमा इसी अंधी आधुनिकीकरण का लाभ उठाकर, अपने निजी स्वार्थ और व्यावसायिक लाभ हेतु नए मार्ग का निर्माण करती है। वह इस आधुनिकीकरण के गिरते स्तर को ध्यान में रखकर फिल्में बनाना शुरू करती है। ताकि लोग अपने मनःस्थिति से उन फिल्मों को जोड़ सकें और खूब सारा मौज ले सकें। हिंदी सिनेमा को आपके भलाई से नहीं, बल्कि अपनी कमाई से मतलब है। बताते चलें कि तत्कालीन जो सिनेमा भर्मित लोगों को सत्य का बोध करवाती थी, जो आम-जनमानस के समस्याओं को अपने फिल्मों के माध्यम से उजागर करती थी, जो अधर्माचरण लोगों को धर्म के पटकथाओं से जोड़ती थी ; आज वो पूर्णतः धूमिल हो चुकी है। बचे गिने-चुने जो बुद्धिजीवी वर्ग के लोग हैं, वो इस फ़िल्म इंडस्ट्री के षड्यंत्र को भली-भांति समझ रहें हैं, और इसका पूर्णरूपेण विरोध कर रहें हैं ; और बाकी के अचेत प्रमादी मॉडर्न लोगों को इससे दूर-दूर तक का वास्ता नहीं। इनको बस रोमांच चाहिए, मौज चाहिए , मौज के अलावे और कुछ नहीं। फिल्मों के माध्यम से समाज में किन मर्यादित छवियों को धूमिल किया जा रहा है ? समाज में गाली-गलौज जैसे अपशब्द संवादों और अश्लील पटकथाओं से क्या दुष्प्रभाव पड़ रहा है ? समाज में कितने हद तक कि झूठ उछाली जा रही है ? इससे इनको कोई मतलब नहीं ; इनको बस अपना मौज चाहिए, और फ़िल्म निर्माताओं को अपना भरा जेब। इसलिए लोगों को भी इस बात से जाग्रत होने के साथ-साथ फ़िल्म निर्माताओं का भी पूरी तरह से विरोध करना चाहिए। इनका अपने प्रयोजन से बनाई गयी हर साजिशों के फन कुचले जाने चाहिए। इनका महिमामंडन करना बंद किया जाना चाहिए ; तभी ये सुधरेंगे ।


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