डिनर डिप्लोमेसी से बदलेंगे बिहार के समीकरण

नई दिल्ली की राजनीतिक सरगर्मी इन दिनों केवल संसद भवन की गरमागरम बहसों तक सीमित नहीं है, बल्कि सत्ता और विपक्ष के बीच चल रहे...
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डिनर डिप्लोमेसी से बदलेंगे बिहार के समीकरण संपादकीय-

नई दिल्ली की राजनीतिक सरगर्मी इन दिनों केवल संसद भवन की गरमागरम बहसों तक सीमित नहीं है, बल्कि सत्ता और विपक्ष के बीच चल रहे छिपे और खुले संघर्ष की परछाइयाँ शहर के पांच सितारा होटलों तक फैल चुकी हैं। सोमवार की रात होटल ताज पैलेस में आयोजित कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के डिनर ने राजधानी की हवा में एक नई हलचल पैदा कर दी। बाहर से देखने पर यह महज़ एक शालीन सामाजिक जमावड़ा लग सकता था, लेकिन भीतर के कमरों में जिस तरह की फुसफुसाहटें और राजनीतिक समीकरण गढ़े जा रहे थे, वह इस बात का सबूत था कि विपक्ष ने आने वाले महीनों, खासकर बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के लिए अपने पत्ते सजाना शुरू कर दिया है।

डिनर डिप्लोमेसी से बदलेंगे बिहार के समीकरण
हंसराज चौरसिया
संसद भवन से लेकर चुनाव आयोग तक किए गए विरोध मार्च के ठीक बाद इस डिनर का आयोजन, महज़ संयोग नहीं था, बल्कि एक संदेश था यह कि इंडिया गठबंधन 2024 की हार के बाद चुपचाप घर बैठने वाला नहीं है। मल्लिकार्जुन खड़गे की भूमिका इस पूरे परिदृश्य में विशेष रूप से दिलचस्प है। एक समय कांग्रेस संगठन के भीतर महज़ एक अनुभवी और वरिष्ठ नेता के रूप में देखे जाने वाले खरगे, अब राहुल गांधी की रणनीति में केंद्रीय किरदार बनते जा रहे हैं। यह केवल संगठनात्मक नेतृत्व नहीं, बल्कि एक सुविचारित दलित कार्ड की तैनाती है, जिसका लक्ष्य बिहार जैसे राज्यों में जातीय समीकरणों को विपक्ष के पक्ष में मोड़ना है। राहुल गांधी की सोच में यह प्रयोग इंदिरा गांधी के दौर की याद दिलाता है, जब उन्होंने गरीब और दलित तबके को अपने साथ जोड़ते हुए, साथ ही सवर्ण समुदाय में भी भरोसा कायम रखकर, एक मजबूत चुनावी गठबंधन खड़ा किया था। फर्क बस इतना है कि उस दौर में यह केंद्रित नेतृत्व पर टिका था, जबकि आज का दौर गठबंधन की मजबूरी और साझा मंच की राजनीति का है। बिहार का राजनीतिक भूगोल इस रणनीति के लिए एकदम उपयुक्त है। यहाँ के मतदाता दशकों से जातीय पहचान के आधार पर मतदान करते आए हैं। मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद से यादव, कुर्मी, पासी, मुसलमान और दलित जैसे समुदाय सत्ता के मुख्य निर्णायक रहे हैं। भाजपा ने पिछले दशक में इस पैटर्न को बदलने की कोशिश की, विशेषकर महादलित और अति पिछड़े वर्ग को साधकर। आरजेडी ने अपने यादव-मुस्लिम समीकरण को बनाए रखा, लेकिन महादलितों में अपनी पकड़ को मजबूत करने में वह सफल नहीं हो पाई। ऐसे में राहुल गांधी का खरगे को आगे करना, विपक्ष को एक ऐसा चेहरा देने का प्रयास है, जो दलित होने के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत भी है, और जिसे जातीय राजनीति के जाल में फँसे बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में भी आसानी से स्वीकार किया जा सके। ताज पैलेस के डिनर में जो चेहरे दिखे, वे अपने आप में एक कहानी कहते हैं। शरद पवार, सोनिया गांधी, अखिलेश यादव, डिंपल यादव, जया बच्चन, मीसा भारती, संजय राउत, प्रियंका गांधी वाड्रा, और आम आदमी पार्टी के संजय सिंह व संदीप पाठक इन सबका एक ही टेबल पर बैठना यह साबित करता है कि विपक्ष ने फिलहाल मतभेदों को किनारे रखकर सामूहिक तस्वीर पेश करने का फैसला किया है। यह तस्वीर खासकर भाजपा को यह बताने के लिए काफी है कि विपक्ष अभी भी अस्तित्व में है, और वह चुनावी मैदान से बाहर नहीं हुआ है। आम आदमी पार्टी की मौजूदगी इस गठबंधन के लचीलेपन की मिसाल है दिल्ली और पंजाब में कांग्रेस और आप आमने-सामने हों, फिर भी राष्ट्रीय मुद्दों पर साथ खड़े होने की क्षमता, आने वाले चुनावों में निर्णायक भूमिका निभा सकती है। बिहार जैसे राज्य में, जहाँ विपक्षी वोट का बिखरना सीधे-सीधे भाजपा को लाभ देता है, यह एकजुटता ज़रूरी भी है और उपयोगी भी। इस डिनर का असली राजनीतिक केंद्र बिंदु वह प्रेजेंटेशन था, जो राहुल गांधी ने मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण और कथित वोट चोरी मॉडल पर दिया। उन्होंने आरोप लगाया कि भाजपा और चुनाव आयोग मिलकर विपक्षी वोटों को योजनाबद्ध तरीके से प्रभावित कर रहे हैं, और यह लोकतंत्र के मूल ढाँचे के लिए खतरा है। राहुल ने इसे महज़ प्रशासनिक लापरवाही नहीं, बल्कि सुनियोजित वोट चोरी की साजिश कहा। इस तरह का आरोप सीधा-सीधा उस अविश्वास को हवा देता है, जो दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों में पहले से मौजूद है यह डर कि सत्ता की मशीनरी उनके खिलाफ काम कर रही है। जब खरगे इस अभियान का चेहरा बनकर इन इलाकों में जाएंगे, तो यह केवल एक राजनीतिक अपील नहीं, बल्कि एक भावनात्मक संदेश भी होगा। दलित राजनीति में कार्ड शब्द का इस्तेमाल प्रायः नकारात्मक भाव में होता है, मानो यह केवल वोट बटोरने का हथकंडा हो। लेकिन भारत के राजनीतिक इतिहास में यह मुद्दा वोट बैंक से कहीं बड़ा है। यह सामाजिक प्रतिनिधित्व, सम्मान और राजनीतिक हिस्सेदारी का प्रश्न है। राहुल गांधी जब कहते हैं कि दलित नेतृत्व पर सवाल उठाना, सामाजिक प्रतिनिधित्व पर सवाल उठाना है, तो वे एक व्यापक राजनीतिक संदेश दे रहे होते हैं वह संदेश जो ग्रामीण बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के पिछड़े जिलों तक गूंज सकता है। यह इंदिरा गांधी की उस शैली की झलक है, जिसमें वे खुद को हाशिये के तबकों की आवाज़ के रूप में प्रस्तुत करती थीं, बस अंतर इतना है कि अब यह आवाज़ एक साझा मंच से उठ रही है। बिहार में इस रणनीति की सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि दलित समाज का वोट बैंक एकरूप नहीं है। पासवान, दुसाध, चमार, कोरी, पासी, महादलित इन सभी के अलग-अलग राजनीतिक झुकाव और हित हैं। लोक जनशक्ति पार्टी लंबे समय तक इस वर्ग में अपनी पकड़ बनाए रही है, और भाजपा ने हाल के वर्षों में चिराग पासवान के साथ मिलकर इसे और मजबूत किया है। कांग्रेस और इंडिया गठबंधन को इस स्पेस में घुसने के लिए केवल चेहरे पर नहीं, बल्कि ठोस संगठनात्मक काम और जातीय संतुलन पर भी जोर देना होगा। इस डिनर के ज़रिए एक और संकेत साफ़ था विपक्ष 2024 की हार के बाद भी अपने नेटवर्क को सक्रिय रखना चाहता है। यह एक तरह से मनोबल बनाए रखने का भी प्रयास है। राजनीतिक कार्यकर्ताओं और नेताओं के लिए ऐसे सम्मेलनों का संदेश यह होता है कि हम अभी भी एकजुट हैं, हमारी रणनीति चल रही है, और हम अगली लड़ाई के लिए तैयार हैं। यह मनोवैज्ञानिक बढ़त, खासकर चुनावी राजनीति में, कई बार वास्तविक जीत-हार जितनी ही अहम हो जाती है। आने वाले महीनों में बिहार विधानसभा चुनाव महज़ एक प्रांतीय मुकाबला नहीं रहेगा। यह 2029 के लोकसभा चुनाव का एक तरह का सेमीफाइनल होगा। अगर इंडिया गठबंधन यहां मजबूत प्रदर्शन करता है, तो यह भाजपा के लिए उत्तर भारत में एक बड़ा झटका होगा। लेकिन अगर भाजपा अपने 2020 के प्रदर्शन को दोहराने में सफल रहती है, तो यह विपक्ष के लिए एक गंभीर संकेत होगा कि केवल चेहरा बदलने और भावनात्मक अपील से जीत पाना मुश्किल है।ताज पैलेस का यह डिनर, अपने बाहरी आवरण में भले ही एक औपचारिक मिलन का रूप लेता हो, लेकिन इसके भीतर छिपा संदेश कहीं गहरा है। यह संदेश है कि राजनीति में जीत सिर्फ़ चुनावी रैलियों में दिए गए भाषणों से नहीं होती, बल्कि उन बंद कमरों में भी तय होती है, जहाँ विचारों और हितों के बीच संतुलन साधा जाता है, और जहाँ एक प्लेट में परोसे गए खाने से ज़्यादा महत्व इस बात का होता है कि मेज़ पर बैठे लोग आने वाले दिनों में एक-दूसरे के लिए कितने भरोसेमंद साबित होंगे। बिहार की राजनीति के पुराने जातीय धागों में दलित नेतृत्व का नया रंग भरने की यह कोशिश सफल होगी या नहीं, यह तो चुनावी नतीजे ही बताएंगे, लेकिन इतना तय है कि इस शाम ने बिहार के चुनावी मौसम में एक नई सरगर्मी जरूर भर दी है।

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