
भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताक़त यही है कि यहाँ हर कुछ वर्षों में चुनाव केवल सत्ता के हस्तांतरण की प्रक्रिया नहीं बनते, बल्कि जनता और नेताओं के बीच संवाद का नया अवसर भी खोलते हैं। यही संवाद लोकतंत्र की आत्मा है, और यही आत्मा उसे जीवंत बनाए रखती है। आज़ादी से लेकर अब तक हमारे लोकतंत्र ने अनगिनत संकट देखे हैं आपातकाल का अंधकार, जातीय संघर्षों का उभार, भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन, और हाल के वर्षों में संस्थाओं की निष्पक्षता पर उठते प्रश्न। लेकिन हर संकट ने लोकतंत्र को तोड़ा नहीं, बल्कि और मज़बूत किया है, क्योंकि जनता की चेतना ने उसे बार-बार पुनर्जीवित किया है।
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हंसराज चौरसिया |
इसी पृष्ठभूमि में राहुल गांधी की वोट जन अधिकार यात्रा बिहार से शुरू हुई है। कांग्रेस का दावा है कि यह यात्रा मतदाता सूची में हो रही गड़बड़ियों, वोट चोरी और चुनावी प्रक्रिया की पारदर्शिता की रक्षा के लिए है। राहुल गांधी इसे लोकतंत्र बचाने की पहल के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। लेकिन राजनीति में हर पहल उतनी ही मज़बूत होती है जितनी उसकी जमीन। और जब यह यात्रा बिहार की धरती पर उतरी, तब इसे सबसे तीखी चुनौती मिली प्रशांत किशोर से वही प्रशांत किशोर जो कभी चुनावी रणनीति बनाने में अद्वितीय माने जाते थे और अब खुद को बिहार की जनता के बीच जन सुराज आंदोलन के माध्यम से स्थापित करना चाहते हैं। प्रशांत किशोर का पहला ही तंज राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आ गया। उन्होंने कहा कि राहुल गांधी को बिहार के जिलों के नाम तक मालूम नहीं होंगे। यह टिप्पणी सिर्फ़ कटाक्ष नहीं थी, बल्कि राहुल गांधी की जमीनी समझ पर प्रश्नचिह्न थी। किसी भी नेता के लिए जनता का विश्वास जीतने का पहला कदम यही होता है कि वह जनता की भाषा बोले, उनके भूगोल को जाने और उनकी संस्कृति को समझे। बिहार जैसे राजनीतिक रूप से सजग राज्य में यह अपेक्षा और भी गहरी है। यहाँ का मतदाता केवल नारों से प्रभावित नहीं होता, बल्कि यह देखता है कि नेता उसके गाँव और कस्बे की गंध को कितना पहचानता है। यदि राहुल गांधी सचमुच इस कसौटी पर कमजोर पड़ते हैं तो प्रशांत किशोर का तंज केवल व्यंग्य न रहकर एक वास्तविक समस्या को उजागर करता है। इसी क्रम में किशोर ने दूसरा सवाल उठाया। क्या राहुल गांधी ने चुनाव के अलावा कभी बिहार में रात बिताई है? यह सवाल और भी गहरा है। दरअसल बिहार की राजनीति की सबसे बड़ी समस्या यही रही है कि राष्ट्रीय स्तर के नेता यहाँ चुनावी मौसम में तो खूब आते हैं, लेकिन बाकी समय बिहार को भुला देते हैं। चाहे बाढ़ हो या बेरोज़गारी का संकट, पलायन हो या शिक्षा और स्वास्थ्य का ढांचा। इन सब पर बड़े नेता मुश्किल से ही बिहार में ठहरकर जनता का साथ देते हैं। किशोर का यह सवाल राहुल गांधी पर ही नहीं, बल्कि उस पूरी राजनीतिक संस्कृति पर तंज है जिसमें बिहार केवल वोटों की गणितीय प्रयोगशाला बनकर रह जाता है, न कि संवेदनाओं का साझा।लेकिन राहुल गांधी की यात्रा को लेकर बहस केवल उनके ठहराव या जिलों की जानकारी तक सीमित नहीं है। असली सवाल उस विषयवस्तु का है जिसे लेकर यह यात्रा शुरू की गई। कांग्रेस का आरोप है कि मतदाता सूची में लगातार गड़बड़ियाँ हो रही हैं। फर्जी पते दर्ज हो जाते हैं, असली मतदाता सूची से गायब हो जाते हैं और अंततः यह वोट चोरी की ओर ले जाता है। यदि यह सच है, तो यह केवल कांग्रेस या राहुल गांधी का मुद्दा नहीं बल्कि पूरे लोकतंत्र का संकट है। मतदाता सूची किसी भी चुनाव की नींव होती है। यदि उसी पर संदेह हो जाए, तो चुनावी निष्पक्षता पर भरोसा कैसे कायम रहेगा? प्रशांत किशोर ने यहाँ एक महत्वपूर्ण बात कही कि यह लड़ाई राहुल गांधी बनाम चुनाव आयोग नहीं होनी चाहिए। चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था की विश्वसनीयता तभी कायम रह सकती है जब वह सवालों का तथ्यात्मक जवाब दे। यदि राहुल गांधी ने गड़बड़ियों के आरोप लगाए हैं तो आयोग को चाहिए कि वह पारदर्शिता से बताए कि मतदाता सूची किस तरह तैयार होती है, फर्जी नामों को कैसे हटाया जाता है और नए नामों को जोड़ने की प्रक्रिया में कौन-सी निगरानी है। आयोग का केवल यह कहना कि राहुल गांधी माफी माँगें, लोकतांत्रिक संवाद की कमजोरी को दिखाता है। जनता को यह भरोसा तभी मिलेगा जब आयोग तर्क और प्रमाण के साथ अपनी बात रखे। किशोर का यह सुझाव वास्तव में लोकतंत्र की गरिमा को बनाए रखने का आग्रह है। बात केवल चुनाव आयोग तक भी सीमित नहीं रहती। यह बहस इस प्रश्न तक पहुँचती है कि विपक्ष की राजनीति का स्वरूप कैसा होना चाहिए। राहुल गांधी ने पिछले कुछ वर्षों में लगातार यात्राओं के माध्यम से अपनी छवि बदलने का प्रयास किया है। भारत जोड़ो यात्रा से लेकर भारत न्याय यात्रा तक उनका उद्देश्य यही रहा है कि वे जनता से सीधे संवाद करें और खुद को केवल दिल्ली का नेता नहीं बल्कि आम आदमी का प्रतिनिधि साबित करें। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह यात्राएँ केवल प्रतीक रह जाती हैं या सचमुच जनता के जीवन में बदलाव का संदेश बन पाती हैं। महात्मा गांधी की पदयात्राएँ इसलिए असरदार थीं क्योंकि वे जनता के दुःख-दर्द का प्रत्यक्ष अनुभव बन जाती थीं। लेकिन आधुनिक राजनीति में यात्राएँ कभी-कभी मीडिया इवेंट में बदल जाती हैं। राहुल गांधी की इस यात्रा का भविष्य भी इसी पर निर्भर करेगा कि यह जनता की आकांक्षाओं से कितना जुड़ पाती है। प्रशांत किशोर का एक और आरोप है कि कांग्रेस बिहार में अब आरजेडी की परछाई बनकर रह गई है। इसमें सच्चाई है। पिछले कई दशकों से कांग्रेस ने बिहार में स्वतंत्र रूप से अपनी पहचान खो दी है। कभी यह राज्य कांग्रेस का गढ़ हुआ करता था, लेकिन धीरे-धीरे वह हाशिये पर पहुँच गई। आज की स्थिति यह है कि कांग्रेस बिना आरजेडी के कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं दिखती। किशोर का कहना है कि राहुल गांधी की यह यात्रा भी अंततः आरजेडी की राजनीति की छाया में ही समा जाएगी और कांग्रेस को इसका कोई स्वतंत्र लाभ नहीं होगा। यह टिप्पणी कांग्रेस के लिए गहरी चुनौती है। यदि वह सचमुच पुनर्जीवित होना चाहती है तो उसे आरजेडी की छाया से निकलकर खुद की मजबूत राजनीतिक ज़मीन तैयार करनी होगी। यहाँ यह भी देखना आवश्यक है कि प्रशांत किशोर खुद किस भूमिका में हैं। कभी वे कांग्रेस और अन्य दलों के चुनावी रणनीतिकार रहे हैं, लेकिन अब उन्होंने राजनीति में सीधा प्रवेश किया है। उनकी “जन सुराज” यात्रा बिहार की गलियों-कस्बों से निकल रही है और वे दावा करते हैं कि यह राजनीति का नया मॉडल है नीचे से ऊपर तक जनता की भागीदारी वाला मॉडल। ऐसे में राहुल गांधी जैसी राष्ट्रीय शख्सियत का बिहार में सक्रिय होना उनके आंदोलन के लिए चुनौती है। जाहिर है, किशोर की आलोचना केवल लोकतांत्रिक आग्रह से प्रेरित नहीं है, बल्कि उसमें राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की छाया भी है। लेकिन इस राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में भी सच्चाई वही उभरती है कि जनता से दूरी बनाकर कोई भी नेता बिहार में स्वीकार्य नहीं हो सकता। बिहार की राजनीति का इतिहास यही बताता है। जेपी आंदोलन से लेकर मंडल राजनीति और लालू यादव के सामाजिक न्याय के एजेंडे तक, हर आंदोलन की जड़ें जनता की गहराइयों में थीं। यहाँ केवल ऊपरी नारों से राजनीति नहीं चलती। जेपी ने युवाओं और किसानों को सीधे जोड़ा, मंडल आयोग ने पिछड़ों की आकांक्षाओं को स्वर दिया, लालू यादव ने वंचित वर्गों को आवाज़ दी। हर दौर में जनता ने उसी नेता को स्वीकार किया जिसने उनके जीवन की धड़कनों को समझा। इसी कारण राहुल गांधी के लिए चुनौती केवल यात्रा करना नहीं है, बल्कि जनता के साथ वास्तविक संबंध स्थापित करना है। आज के बिहार की स्थिति भी बेहद जटिल है। बेरोज़गारी इतनी बड़ी समस्या है कि लाखों नौजवान रोज़गार की तलाश में राज्य छोड़ने पर मजबूर हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था कमजोर है। उद्योग लगभग न के बराबर हैं। बाढ़ और सूखा यहाँ की स्थायी समस्या बन चुके हैं। प्रवासी मजदूरों की पीड़ा तो पूरे देश ने कोरोना महामारी के समय देखी। इन सब सवालों से टकराए बिना कोई भी यात्रा सफल नहीं हो सकती। यदि राहुल गांधी इन मुद्दों को गहराई से नहीं उठाते और केवल चुनावी पारदर्शिता की बात तक सीमित रहते हैं, तो जनता का जुड़ाव कमजोर पड़ सकता है।लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है। लोकतंत्र में संस्थाओं की जवाबदेही पर सवाल उठाना बेहद ज़रूरी है। यदि राहुल गांधी इस यात्रा के माध्यम से चुनाव आयोग और सरकार को मतदाता सूची की पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए मजबूर करते हैं, तो यह लोकतंत्र की बड़ी उपलब्धि होगी। यह यात्रा सफल मानी जाएगी यदि इससे जनता का भरोसा चुनावी प्रक्रिया पर और मजबूत हो। लेकिन यदि यह केवल कांग्रेस की चुनावी रणनीति बनकर रह जाती है तो इसका असर क्षणिक होगा। दरअसल राहुल गांधी और प्रशांत किशोर के बीच यह टकराव केवल दो व्यक्तियों की महत्वाकांक्षा का संघर्ष नहीं है। यह भारतीय लोकतंत्र की दिशा पर चल रही बहस का प्रतीक है। एक ओर राहुल गांधी हैं जो संस्थाओं की जवाबदेही पर प्रश्न उठाकर लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा की बात कर रहे हैं। दूसरी ओर प्रशांत किशोर हैं जो यह कह रहे हैं कि लोकतंत्र केवल संस्थाओं की पारदर्शिता से नहीं, बल्कि जनता के साथ निरंतर संवाद से मज़बूत होता है। दोनों दृष्टिकोणों का मेल ही लोकतंत्र को स्वस्थ बनाएगा। अंततः यह सवाल जनता के पास जाएगा। बिहार की जनता राजनीतिक रूप से सबसे सजग मानी जाती है। यहाँ लोग नेताओं को बार-बार परखते हैं और यदि उन्हें लगता है कि नेता केवल चुनावी मौसम का मेहमान है तो वे तुरंत नकार देते हैं। राहुल गांधी की यह यात्रा भी जनता की इसी कसौटी पर परखी जाएगी। यदि वे जनता के दुख-सुख में सच्चा सहभागी बनते हैं, उनके मुद्दों पर गंभीरता से खड़े होते हैं, तो यह यात्रा लंबे समय तक असर डालेगी। लेकिन यदि यह केवल मीडिया की सुर्खियों तक सीमित रह गई तो इसका असर चुनावी नारेबाज़ी तक ही रहेगा। लोकतंत्र की यही सुंदरता है कि यहाँ हर नेता, हर संस्था और हर आंदोलन जनता की अदालत में है। और जनता का फैसला ही अंतिम है। राहुल गांधी की “वोट जन अधिकार यात्रा” और प्रशांत किशोर का प्रतिवाद हमें यही याद दिलाते हैं कि लोकतंत्र केवल सत्ता परिवर्तन का साधन नहीं, बल्कि जनता और नेताओं के बीच सतत संवाद की प्रक्रिया है। यदि यह संवाद ईमानदारी से चलता है तो लोकतंत्र मज़बूत होता है, और यदि यह संवाद केवल चुनावी गणित में बदल जाता है तो लोकतंत्र कमजोर पड़ता है। आज बिहार की धरती पर यही कसौटी सामने है। राहुल गांधी और प्रशांत किशोर दोनों ही अपने-अपने तरीके से जनता के बीच जाने का दावा कर रहे हैं। अब यह जनता ही तय करेगी कि किसकी आवाज़ असली है और किसकी गूँज केवल चुनावी शोर है।