
भारतीय राजनीति में उपराष्ट्रपति पद केवल संवैधानिक व्यवस्था की एक औपचारिक कुर्सी नहीं है, बल्कि यह उस पूरे लोकतांत्रिक ढांचे का एक अहम स्तंभ है जिसके बल पर संसद की कार्यवाही संतुलित और अनुशासित बनी रहती है। राज्यसभा का सभापति उपराष्ट्रपति ही होता है, और इस नाते उसका कार्य केवल संचालन का नहीं, बल्कि बहस को संतुलित रखने, विभिन्न दलों के दृष्टिकोणों को समान अवसर देने और लोकतंत्र की गरिमा को अक्षुण्ण बनाए रखने का भी है। ऐसे समय में जब राजनीतिक संवाद में शालीनता कम होती जा रही है और ध्रुवीकरण अधिक गहराई से असर डाल रहा है, तब यह सवाल और भी महत्वपूर्ण हो उठता है कि इस पद पर कौन बैठता है।
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हंसराज चौरसिया |
इसी संदर्भ में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने महाराष्ट्र के राज्यपाल और तमिलनाडु से भाजपा के वरिष्ठ नेता सी. पी. राधाकृष्णन को उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में प्रस्तुत किया है। सी. पी. राधाकृष्णन का नाम सामने आने के साथ ही राजनीतिक हलकों में कई तरह की प्रतिक्रियाएँ उभरने लगीं। एक ओर भाजपा और उसके सहयोगी दल इस चयन को अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और संगठनात्मक अनुभव का परिणाम बता रहे हैं, तो दूसरी ओर विपक्षी खेमे में इस नाम को लेकर रणनीतिक चर्चा हो रही है। राधाकृष्णन का राजनीतिक सफर किसी आकस्मिक उछाल का परिणाम नहीं बल्कि वर्षों की तपस्या और संगठनात्मक अनुशासन का उदाहरण है। वे संघ परिवार की पृष्ठभूमि से आते हैं, जिसने उन्हें विचारधारा की स्पष्टता और संगठनात्मक समर्पण दोनों दिया। तमिलनाडु जैसे राज्य से आकर राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पहचान बनाना अपने आप में एक चुनौतीपूर्ण कार्य था, क्योंकि यह वह भूभाग है जहाँ भाजपा की उपस्थिति लंबे समय तक सीमित रही। लेकिन राधाकृष्णन का योगदान यह रहा कि उन्होंने संगठन के प्रति अपनी निष्ठा बनाए रखी, चाहे हालात कितने भी प्रतिकूल क्यों न हों। एनडीए द्वारा उन्हें उम्मीदवार बनाए जाने के पीछे कई परतें हैं। पहला तो यह कि उपराष्ट्रपति पद के लिए ऐसी शख्सियत की तलाश थी जिसकी छवि विवादों से परे हो। वर्तमान समय में राजनीति में ऐसे चेहरे दुर्लभ हैं जिनके बारे में विपक्ष भी यह कह सके कि वे शांत, सौम्य और संतुलित स्वभाव के व्यक्ति हैं। राधाकृष्णन का नाम इसी कसौटी पर खरा उतरता है। दूसरा कारण यह है कि भाजपा दक्षिण भारत में अपनी जड़ें गहरी करना चाहती है। भले ही लोकसभा चुनावों में उसे तमिलनाडु में अपेक्षित सफलता न मिली हो, लेकिन संगठन का दीर्घकालिक लक्ष्य इस क्षेत्र में वैचारिक और राजनीतिक उपस्थिति मजबूत करना है। राधाकृष्णन जैसे नेता इस दिशा में प्रतीकात्मक और रणनीतिक दोनों मायनों में मददगार साबित हो सकते हैं।राजनीतिक इतिहास यह बताता है कि उपराष्ट्रपति का चुनाव केवल सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच का मुकाबला नहीं होता, बल्कि यह देश की राजनीतिक संस्कृति का भी संकेत होता है। जब-जब उपराष्ट्रपति पद पर ऐसी शख्सियतें आईं जिन्होंने दलगत सीमाओं से ऊपर उठकर संसद को दिशा दी, तब-तब लोकतंत्र की गरिमा बढ़ी। हामिद अंसारी जैसे उपराष्ट्रपतियों ने अपने कार्यकाल में कई बार आलोचनाएँ भी झेली, परंतु उन्होंने सदन की गरिमा और संतुलन बनाए रखने की कोशिश नहीं छोड़ी। वेंकैया नायडू ने भी अपनी विशिष्ट शैली और ऊर्जा के साथ इस पद की प्रतिष्ठा को बढ़ाया। अब राधाकृष्णन के सामने यह चुनौती होगी कि वे अपनी निष्पक्षता, संतुलन और शालीनता के साथ इस परंपरा को आगे बढ़ाएँ। राधाकृष्णन का राजनीतिक जीवन कई दृष्टियों से प्रेरणादायी रहा है। वे दो बार लोकसभा के सदस्य रह चुके हैं और संसद में उनकी पहचान एक सजग सांसद के रूप में रही। उनकी राजनीति में आक्रामकता की बजाय संवाद और सहमति का भाव अधिक स्पष्ट दिखाई देता है। यही गुण उन्हें उपराष्ट्रपति पद के लिए उपयुक्त बनाता है। जब संसद की कार्यवाही में बार-बार व्यवधान और हंगामे होते हों, तब एक ऐसा सभापति ही स्थिति संभाल सकता है जो धैर्यवान हो और सबको सुनने की क्षमता रखता हो। राधाकृष्णन के व्यक्तित्व में यही संतुलन परिलक्षित होता है। इस चयन का एक और आयाम है भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस की रणनीति। लंबे समय से यह आरोप लगता रहा है कि भाजपा दक्षिण भारत को अपनी राजनीतिक प्राथमिकता में केवल चुनावी दृष्टिकोण से देखती है। लेकिन राधाकृष्णन की उम्मीदवारी यह संदेश देती है कि संगठन इस क्षेत्र की राजनीतिक चेतना और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को गंभीरता से ले रहा है। तमिलनाडु की राजनीति द्रविड़ आंदोलनों और क्षेत्रीय दलों के इर्द-गिर्द घूमती रही है। ऐसे में भाजपा के लिए यहां जमीन तलाशना आसान नहीं रहा। लेकिन राधाकृष्णन की छवि एक स्थानीय नेता की है जिसने क्षेत्रीय संवेदनाओं के साथ भी संवाद कायम रखा और राष्ट्रीय राजनीति में भी अपनी पहचान बनाई। इस घोषणा के बाद विपक्ष की स्थिति थोड़ी पेचीदा हो गई है। यदि विपक्ष कोई मजबूत प्रत्याशी उतारता है तो यह चुनाव दिलचस्प हो सकता है, लेकिन यदि वे सर्वसम्मति से राधाकृष्णन को स्वीकार कर लेते हैं, तो यह भाजपा के लिए नैतिक विजय होगी। अभी तक के संकेत यह बताते हैं कि कई विपक्षी दल इस चुनाव को लेकर अपने-अपने हित साधने में लगे हैं। जेडीयू और शिवसेना जैसे दल पहले ही राधाकृष्णन को समर्थन दे चुके हैं। यह समर्थन एनडीए की रणनीति को और मजबूत करता है। विपक्ष का साझा प्रत्याशी खड़ा करने का प्रयास शायद इस बार उतना कारगर न हो, क्योंकि उनके सामने एक ऐसा उम्मीदवार है जिसकी व्यक्तिगत छवि पर सवाल उठाना आसान नहीं है। अब यदि इस चयन को लोकतांत्रिक व्यवस्था की कसौटी पर परखें तो कई महत्वपूर्ण बातें सामने आती हैं। पहली बात यह कि उपराष्ट्रपति पद का चुनाव केवल सत्ता संतुलन का मामला नहीं होता, बल्कि यह देश की संसदीय संस्कृति का भी प्रतिबिंब होता है। यदि कोई दल सर्वसम्मति से किसी व्यक्ति को इस पद के लिए चुनता है, तो इसका अर्थ यह होता है कि उस व्यक्ति की छवि पूरे राजनीतिक वर्ग के लिए स्वीकार्य है। यदि इस बार ऐसा संभव हुआ, तो यह भारतीय लोकतंत्र के लिए सकारात्मक संकेत होगा।दूसरी बात यह कि लोकतंत्र में संवैधानिक पदों की गरिमा बनाए रखना बेहद जरूरी है। आज जब राजनीति में वैचारिक टकराव गहराता जा रहा है और सत्ता की लड़ाई में भाषा की मर्यादा टूट रही है, तब ऐसे पदों पर आसीन व्यक्तियों की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। उन्हें यह दिखाना होता है कि लोकतंत्र केवल बहुमत का खेल नहीं है, बल्कि यह सबको साथ लेकर चलने की प्रक्रिया है। राधाकृष्णन के व्यक्तित्व से उम्मीद की जा सकती है कि वे इस दिशा में योगदान देंगे।तीसरी बात यह कि इस चयन से भाजपा ने यह भी साबित करने की कोशिश की है कि वह केवल आक्रामक चुनावी राजनीति की पार्टी नहीं है, बल्कि संगठनात्मक संतुलन और वैचारिक स्पष्टता के साथ वह राजनीति को परिष्कृत करने की भी क्षमता रखती है। यदि राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति चुने जाते हैं, तो यह संदेश जाएगा कि भाजपा ने एक ऐसे व्यक्ति को आगे बढ़ाया है जो विवादों से परे है और जिसकी प्राथमिकता संसद की कार्यवाही को गरिमा के साथ चलाना है। भारतीय लोकतंत्र के इस मोड़ पर यह चयन केवल एक औपचारिकता नहीं बल्कि एक प्रतीक भी है। यह उस संतुलन का प्रतीक है जिसकी आवश्यकता आज हमारी राजनीति को पहले से कहीं अधिक है। जब संवाद टूट रहे हों और सहमति के बजाय असहमति को ही राजनीति की पहचान बना दिया जा रहा हो, तब एक ऐसा उपराष्ट्रपति ही उम्मीद जगाता है जो संवाद को पुनः स्थापित करने में सक्षम हो। राधाकृष्णन का अतीत, उनका व्यक्तित्व और उनकी राजनीतिक यात्रा इस उम्मीद को बल देते हैं। अंततः यह कहा जा सकता है कि एनडीए का यह निर्णय एक सुविचारित रणनीति है जिसमें राजनीतिक हित और लोकतांत्रिक आवश्यकता दोनों का संतुलन है। राधाकृष्णन यदि उपराष्ट्रपति चुने जाते हैं, तो यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक नई दिशा तय कर सकता है। वे न केवल सदन की कार्यवाही को गरिमा देंगे, बल्कि यह भी दिखाएँगे कि राजनीति केवल टकराव की नहीं, बल्कि संवाद और सहमति की प्रक्रिया है। आज के दौर में यही सबसे बड़ी आवश्यकता है, और यही भारतीय लोकतंत्र की असली ताकत भी।